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"तेरे नाम की रातें"

तेरे नाम की जो रातें हैं,
वो अब भी मेरी नींद चुराती हैं,
तकिये की सिलवटों में छिपी हुई
तेरी आहटें सुनाई देती हैं।

तू था कभी, पास बहुत,
साँसों की गर्मी तक महसूस होती थी।
अब दूर है, मगर क्या कहूँ,
तेरी यादें अब भी बदन में उतरती हैं।

वो पहली बार जब छुआ था तूने,
न धड़कनों को समझा, न उस सिहरन को,
बस कुछ पल ऐसे ठहरे थे,
जैसे वक्त भी शर्म से झुक गया हो।

तेरे होंठों से फिसली थी जब एक खामोशी,
उसमें भी इकरार था,
वो इश्क़, जो जुबां से ना निकला,
मगर आँखों में बरसता प्यार था।

तेरी उंगलियों की हर हरकत,
जैसे मेरे जिस्म पे कविता लिख रही थी।
कभी सर्द रातों में चुपचाप,
तेरा नाम मेरी त्वचा पर जलता था।

हमने चाँदनी ओढ़कर कसमों के बिस्तर बिछाए,
और तारे गिनते-गिनते
एक-दूसरे में समा गए।
शब्द कम पड़ते थे,
पर हमारे शरीर बोलते थे।

तेरे गले में सिमट जाना,
जैसे पूरी कायनात मुझे बाहों में भर ले,
वो पल जब मैं तेरे सीने पर सोती थी,
तो लगता था, सारी दुनिया यहीं रुक जाए।

तू मेरी नज़्मों का नशा था,
और मैं तेरे हौसलों की आग।
हम दोनों एक-दूसरे को
सिर्फ देख नहीं रहे थे,
हम एक-दूसरे को जी रहे थे।

वो इश्क़ जो कपड़ों की परतों से
कभी आगे बढ़ा,
तो शर्म से नहीं,
सम्मान से बढ़ा।

तेरी हथेली की गर्मी
अब भी मेरी जांघों पर है,
तेरे होंठों की मिठास
अब भी मेरी गर्दन पे टिक गई है।

समय ने सब छीन लिया,
सिर्फ यादें छोड़ीं।
पर ये यादें अब भी रातों को
मेरे सीने में उतर आती हैं।

तेरे बिना अब भी
खुद को अधूरा पाती हूँ,
जिस तरह कोई कविता बिना अंत के,
या कोई साज़ बिना सुर के।

मैं चाहती थी तुझे पूरेपन में,
ना अधूरा, ना छुपा हुआ।
हमने जिस्मों से भी आगे जाकर
रूहों को छुआ था।

तू अब भी मेरी रचनाओं में है,
हर पंक्ति में, हर विराम में,
और कभी-कभी मेरी तन्हाई में,
तेरा नाम चुपचाप पुकारती हूँ।

कुछ रिश्ते ख़त्म नहीं होते,
वो बस जीवन के किसी कोने में
शब्दों की तरह सहेज लिए जाते हैं।
तू वही है—एक बंद किताब,
जिसे मैं अब भी रोज़ पढ़ती हूँ,
बिना किसी को दिखाए।



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