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Post-40 AMBI-166
Post-40 AMBI-166
"रिश्तों की राख"
जब उम्र बीतने लगती है,
तो ख्वाबों की जगह जिम्मेदारियाँ ले लेती हैं,
और दिल की धड़कनों में अब
इश्क़ नहीं, ईएमआई गूंजने लगती है।
वो लम्हें जो कॉलेज की गलियों में
हँसी और छेड़छाड़ से भरे थे,
अब ऑफिस की कुर्सी और मीटिंग्स में
कागज़ों पर दफन हो गए हैं।
तू याद है मुझे, बहुत गहराई से,
पर अब तुझसे मिलना
कैलेंडर में समय खोजने जैसा है,
जहाँ हमारी तारीखें कभी नहीं मिलतीं।
रातें अब चाँदनी नहीं लातीं,
बल्कि थकावट और दर्द की चादर ओढ़े आती हैं,
नींद आँखों में नहीं,
दिमाग के भार में कहीं खो जाती है।
कभी तू मेरे लिए सब कुछ थी,
अब 'सब कुछ' में बहुत कुछ और भी शामिल है—
बॉस का ईमेल, बच्चे की फ़ीस,
और पड़ोसी की राजनीति भी।
हम अब भी साथ हैं,
पर पास नहीं।
बिस्तर साझा है,
पर सपने नहीं।
बातें होती हैं,
पर भावनाएँ नहीं।
इश्क़ अब अलमारी में टंगी किसी पुरानी कमीज़-सा है,
जो अब नहीं पहनी जाती,
पर फेंकी भी नहीं जाती—
क्योंकि उससे जुड़ी है वो पहली बारिश,
वो आधा खाया पाव भाजी,
वो सड़क किनारे गाया गया गाना
जो अब सिर्फ पुराने यूट्यूब विडियोज़ में बचा है।
हमने वक़्त के साथ चलना सीखा,
पर एक-दूसरे के साथ रुकना भूल गए।
तू रूटीन बन गई,
और मैं टाइमटेबल।
हम दोनों काम के बीच एक ब्रेक बन गए,
जिसे कभी-कभी लिया जाता है—
वो भी जरूरत के हिसाब से।
सच कहूँ,
तो अब मोहब्बत वो कविता नहीं रही
जिसे लिखने के लिए दिल धड़कता था,
बल्कि अब वो एक ड्राफ्ट है
जिसे हर दिन एडिट करना पड़ता है,
ताकि कोई शिकायत ना करे।
हमने साथ जीने के सपने देखे थे,
पर अब सिर्फ साथ निभाने की मजबूरी सी रह गई है।
तेरे होंठ अब मेरे नाम की लोरी नहीं गाते,
और मेरी उंगलियाँ अब तेरे बालों में उलझने की फुर्सत नहीं पातीं।
हम बड़े हो गए हैं,
इतने बड़े कि अब ‘सॉरी’ कहने में शर्म आने लगी है,
‘आई लव यू’ बोलना भी अब बच्चाना लगता है,
और बातों को सुलझाने से ज़्यादा
चुप रहना आसान लगता है।
बचपन के झगड़े थे,
तो ज़मीन पर लोट-पोट होकर हँसी आती थी।
अब झगड़े बिस्तर के किनारों में बदल गए हैं,
जहाँ नींद तो आती है,
पर चैन नहीं।
तू अब भी वही है,
और मैं भी बदला नहीं—
पर जो बदला है, वो है हम।
हम अब वो नहीं रहे
जो शाम को छत पर खड़े होकर
सिर्फ एक-दूसरे को देखा करते थे।
अब हम दो लोग हैं,
जो एक ही Wi-Fi से जुड़े हैं,
पर एक-दूसरे से डिस्कनेक्ट हैं।
हमें अब बातें नहीं करनी होतीं
क्योंकि हम मान चुके हैं
कि कुछ भी कहने से कुछ बदलेगा नहीं।
पर कहीं ना कहीं,
उस दिल के किसी कोने में
अब भी वो पहला 'हाय' दबा हुआ है,
वो पहली झिझक, वो पहली छुअन,
और वो पहली बार जब तूने कहा था—
"मैं हमेशा साथ रहूँगी।"
काश हम उन लम्हों को फिर से जी पाते,
काश ये व्यस्कता का बोझ
हमसे हमारी मासूम मोहब्बत ना छीनता।
काश हमारे रिश्ते में फिर से
वो पुरानी सी मिठास लौट आती।
पर शायद ये 'काश' ही अब
हमारे रिश्ते का आखिरी सच बन गया है।
---
"पर हम अब भी हैं..."
हम अब भी हैं,
साथ, एक ही छत के नीचे,
एक ही जिंदगी के हिस्सेदार।
शायद यही प्यार का असली रूप है—
बिना कहे निभाना,
बिना माँगे देना,
और बिना जताए जीते रहना।
तू अब मेरी कविता नहीं,
पर तू मेरी स्थिरता है,
जो मुझे हर तूफान से बचा लेती है।
मैं अब तेरा हीरो नहीं,
पर शायद वो दीवार बन चुका हूँ
जिससे तू पीठ टिकाकर साँसें लेती है।
रिश्ते अब वैसे नहीं रहे
जैसे उपन्यासों में होते हैं,
पर फिर भी,
इन अधूरी बातों में भी
एक अधूरा सा प्यार बचा है—
जो हमें तोड़ने नहीं देता।
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