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Post-35 MIAA-892
Post-35 MIAA-892
जब रात ढलती है चुपके से,
तब जागती है एक कहानी,
जिसमें न प्रेम शुद्ध होता है,
न वासना केवल शारीरिक।
तेरे स्पर्श की गर्माहट अब भी
मेरे रग-रग में दौड़ती है,
जैसे जमी बर्फ में सूरज की किरन
धीरे-धीरे पिघलन लाती हो।
तेरे होंठों की नरमी अब भी
मेरे होंठों पर पड़ी है ठहरी,
न वो चुम्बन पहली बार था,
न ही अंतिम, बस एक यात्रा थी।
हम दोनों जानते थे,
ये रिश्ता शायद नामहीन रहेगा,
पर जिस्म जब बोलते हैं,
तर्क चुप हो जाते हैं।
तेरे कंधों पर सिर रख
मैं भूल जाता हूँ दुनिया की भीड़,
तेरी सांसों में डूबकर
खुद को पाना अच्छा लगता है।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या ये पाप है जो हम करते हैं?
या फिर सच की वो परतें
जिन्हें समाज ढक देता है पर्दों से?
तेरी आँखों में जो ज्वाला है,
वो न केवल वासना है,
उसमें अधूरी चाहतें हैं,
जो समाज की दीवारों से टकरा गईं।
हमने नाम नहीं दिए,
न अपने मिलन को, न इन रातों को,
पर इन चुपचाप बिताए पलों ने
जिंदगी में शोर भर दिया है।
तेरा मेरा मिलना
किसी कविता-सा ही तो है,
शब्द अधूरे, पर भाव पूरे,
छंदों से ज्यादा दिल के करीब।
जब तेरा आँचल गिरता है
मेरे सीने पर धीरे-धीरे,
वो नज़ारा मेरी आत्मा तक
चीर जाता है।
तू कोई खेल नहीं है मेरे लिए,
ना ही मैं तेरा खिलौना,
हम दोनों भटके हुए राही हैं
जो राह के मोड़ पर थम गए हैं।
तेरी पीठ पर उंगलियों की रेखाएँ
कविता बनती जा रही हैं,
हर छुअन एक अक्षर है
जो तेरे जिस्म पर लिखा है।
ये मिलन केवल देह का नहीं,
ये आत्माओं का भी संग है,
कभी सुख, कभी ग्लानि
इस प्रेम का द्वंद्व यही रंग है।
कभी जब तू चली जाती है,
तेरी खुशबू तकिए पर रह जाती है,
मैं देर तक उसे सीने से लगाता हूँ,
जैसे तू वहीं कहीं हो, अदृश्य।
तेरे बिना भी तू मेरे साथ होती है,
जैसे चाँदनी बिना चाँद के,
एक आभास, एक मिठास
जो नींदों में घुल जाती है।
कभी कभी डर लगता है
कि ये सब खत्म न हो जाए,
कि कहीं हम एक-दूसरे के लिए
एक और अधूरी कहानी न बन जाएं।
पर फिर सोचता हूँ—
कहानी अधूरी हो तो क्या?
क्या हर कविता का अंत जरूरी होता है?
तेरी देह, तेरा मन, तेरी बातें
मुझे नया बनाती हैं,
एक ऐसा मैं, जो समाज के
बाँधों को तोड़ कर जीता है।
रात गहराती है,
तू पास आती है,
और मैं फिर से तुझमें
खुद को खो देता हूँ।
हर सवेरा तुझे दूर ले जाता है,
पर रात फिर से हमें जोड़ देती है,
एक चुपचाप रिश्ता,
जो शब्दों से परे है।
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