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Post-33 KIRE-074
Post-33 KIRE-074
"अधूरी रात की पूरी कहानी"
चाँदनी रात का आलिंगन,
धीरे-धीरे उतरता था तेरे कंधों तक,
हवा में तेरी साँसों की गर्माहट थी,
और मेरी धड़कनों में बसी एक सिहरन।
तू चुप थी, मगर आँखें बोल रही थीं,
उन अधरों पर कोई शब्द नहीं,
पर भावनाएँ नग्न थीं—
नकाबों से परे, सच के सबसे करीब।
तेरी उँगलियाँ मेरे सीने पर एक कविता लिख रही थीं,
जिसे किसी किताब में नहीं,
बस मेरे रोम-रोम में पढ़ा जा सकता था।
रात जैसे ठहरी हो,
और समय तेरे आगोश में समा गया हो।
हमारी चुप्पियों ने
हजारों गाथाएँ कह डालीं,
बिना एक भी शब्द बोले।
तेरा स्पर्श—
मानो पहली बारिश हो रेगिस्तान में,
या पहली बार किसी अजनबी की
पलकों पर ठहरी मोहब्बत।
हमने वक़्त नहीं देखा उस रात,
ना घड़ी की सुइयों की परवाह की,
हमने बस खुद को जिया,
हर पल में घुलकर,
हर सांस में समाकर।
तेरे गले की नर्म रेखाओं में
मैंने ब्रह्मांड की लय देखी,
तेरी पीठ पर उभरी रेखाओं में
एक पूरी कविता की लकीरें मिलीं।
हम प्रेम नहीं कर रहे थे,
हम प्रेम बन गए थे—
एक आकृति, एक रचना,
जिसे खुद ईश्वर ने भी शायद
देखकर मुस्कुरा दिया होगा।
तेरे माथे को चूमते हुए
मैंने जाना,
इच्छा और सम्मान
साथ-साथ चल सकते हैं।
तू मेरे बदन की ज़रूरत नहीं थी,
तू मेरी आत्मा की पुकार थी।
वो रात देह की सीमा से परे थी,
जहाँ आत्माएँ नग्न होती हैं,
और कोई शर्म नहीं होती
सच्चे भावों की।
मैंने तेरी आँखों में
अपना अक्स देखा—
थोड़ा टूटा, थोड़ा खोज में,
और तूने मेरे होठों पर
अपने अधूरेपन को सिल दिया।
तेरे आलिंगन में
एक माँ की ममता भी थी,
एक प्रेमिका की तृष्णा भी,
और एक मित्र की निःस्वार्थता भी।
क्या यह सिर्फ़ शरीर था?
या आत्मा की गहराइयों में
उतरती कोई प्रार्थना?
वो रात अब भी ज़िंदा है—
मेरी नींदों में,
तेरे कंधों की खुशबू में,
मेरे शब्दों के झरोंखों में।
कभी अगर तू पूछे—
"वो एक रात क्यों याद है इतना?"
तो मैं कहूँगा:
"क्योंकि उस रात मैंने जाना था
प्रेम सिर्फ़ भावना नहीं,
प्रेम एक समर्पण है—
जहाँ देह भी आत्मा का हिस्सा बन जाती है।"
तेरा साथ, तेरी आहट,
तेरी वो सर्द उँगलियाँ—
हर एक बात में
कविता बन गई थी।
और मैं,
बस एक कवि नहीं,
एक प्रेमी बन गया था,
जिसे अपनी कविता में
तू ही नायक भी थी, नायिका भी,
और ईश्वर भी।
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