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शीर्षक: "तुम और मैं, रात्रि के सिरहाने"

तुम्हारी साँसों की आहट से,
जब रात की खामोशी टूटती है,
तब हर शब्द नहीं, हर स्पर्श बोलता है,
बिना कहे, बिना छुए, बस महसूस होता है।

वो पहली बार जब तुम्हारी उँगलियाँ,
मेरी उँगलियों से उलझीं थीं,
मानो कोई गूढ़ मन्त्र खुल गया हो,
रूह तक कंपकंपा गई थी।

तुम्हारी आँखों में जो चमक थी,
वो न आदर्श थी, न मासूम,
वो एक निमंत्रण था,
मन और तन के समर्पण का।

रात के अंधेरों में जब चाँद उतर आता है,
हमारे बिस्तर के एक कोने में,
तब तुम्हारा स्पर्श—जैसे आग और बरसात साथ हों,
जैसे शब्द नग्न हो जाएँ भावनाओं के नीचे।

किसी कविता में इतना रस नहीं,
जितना तुम्हारी गर्दन की उस नस में बहता है,
जहाँ मैं अपने होठों से पढ़ता हूँ
तुम्हारी अधूरी इच्छाओं की कहानी।

तुम कहती हो,
“ये सिर्फ़ प्रेम नहीं… कुछ और है।”
हाँ, यह वह और है,
जो शब्दों से परे, साँसों में बंधा है।

तुम्हारी देह पर उगते हैं विचार,
कभी क्रांति बनते हैं, कभी समर्पण,
कभी स्त्रीत्व की पूरी व्याख्या,
तो कभी बस एक रात की कविता।

तुम्हारे शरीर की बनावट में,
जैसे ब्रह्माण्ड की रहस्यपूर्ण संरचना हो,
हर वक्र, हर रेखा, हर पसीने की बूंद
जैसे एक श्लोक हो – मेरी पूजा का।

मेरी उंगलियाँ जब तुम्हारे पीठ पर उतरती हैं,
तो कोई धार्मिकता टूटती नहीं,
बल्कि एक नया धर्म जन्म लेता है –
जहाँ काम और प्रेम एक ही मंत्र हैं।

तुम्हारा शरीर मेरी कल्पनाओं की सीमा नहीं,
वो मेरी भावनाओं का विस्तार है,
जहाँ मैं खोता नहीं – पाता हूँ खुद को,
जहाँ पाप और पुण्य दोनों मिलकर
एक प्रेम की भाषा बनाते हैं।

रात की रिदम में जब हम दो शरीर
एक हो जाते हैं,
तब कोई भी संगीतकार
हमारे सन्नाटे का राग नहीं बना सकता।

तुम जब मेरे कान के पास आकर फुसफुसाती हो –
"और करीब आओ",
तब मैं सोचता हूँ –
कितना और?
जब हम दोनों पहले ही
एक-दूसरे के भीतर समा चुके हैं।

तुम्हारे माथे पर पसीना
किसी भक्ति का परिणाम लगता है,
और मेरी धड़कनों की धौंकनी
जैसे यज्ञ की अग्नि को भड़काती है।

हमारा प्रेम —
ना शुद्ध है, ना अशुद्ध,
यह बस है — पूर्ण।
ना नैतिकता का बंधन,
ना समाज की दीवारें।
बस दो आत्माओं का साहसी मिलन।

हर चादर जो हम पर पड़ी है,
उसने हमारी कहानियाँ सुनी हैं,
हर तकिया जो हमारे बीच रहा है,
उसने हमारे मौन संवादों को गिना है।

हमारा प्रेम दैहिक है,
हाँ, और इसमें कोई शर्म नहीं।
क्योंकि जब आत्माएँ थक जाती हैं,
तो शरीर बोलते हैं।

और तुम —
तुम वही कविता हो,
जो मैं दिन भर नहीं लिख सकता,
पर रात के हर पहर
तुम्हारे भीतर पढ़ लेता हूँ।


---

अंतिम पंक्तियाँ:

यह कविता केवल वासना की नहीं,
बल्कि उस आत्मीयता की है,
जो वयस्क प्रेम में पनपती है —
जहाँ शरीर पुल हैं, और आत्माएँ यात्री।

                               


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