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शीर्षक: "रात की गवाही"
चाँदनी बिखरी थी तन पर,
जैसे किसी ने कामनाओं का दीपक जला दिया हो।
हवा में गंध थी किसी अनकहे स्पर्श की,
और खामोशी में भी कुछ कह देने की तड़प थी।
तुम पास थे,
पर शब्द दूर खड़े थे,
स्पर्श की भाषा बोलती थी आँखें,
और होठों की चुप्पी पुकारती थी भीतर का ज्वालामुखी।
जिस्म की सरहदों पर,
मन की आँधियाँ चल रही थीं।
अधरों की नमी,
अब तपती रेत सी लगती थी —
जब तक तुमने अपने होंठों से उसे छू न लिया।
रात की वह पहली करवट
जैसे सदियों का इंतज़ार थी,
और वो दूसरी,
जिसमें तुम्हारी उँगलियाँ मेरी साँसों में उतर आईं।
हर धड़कन में बसी थी बेचैनी,
हर स्पंदन में डूबी थी प्यास।
तुम्हारा आलिंगन,
मानो समुंदर की लहरों में डूबती कोई कश्ती —
जो टूट कर ही तृप्त हो सकती थी।
कहते हैं प्रेम पवित्र होता है,
पर इस पवित्रता में कितनी गहराई से कामना लिपटी थी।
वो रात —
न तो सिर्फ प्रेम की थी,
न ही सिर्फ देह की —
वो आत्मा की परछाईं में छुपे अंधकार को छूने की थी।
हमने एक-दूसरे को यूँ पढ़ा
जैसे किताबें नहीं,
कहीं भीतर दबी आत्मकथाएँ हों।
स्पर्श से लिखी,
आँसुओं से मिटाई,
और सिसकियों में दोबारा रची गई कहानियाँ।
तुम्हारी साँसें मेरे गले में अटकती रहीं,
और मेरी उँगलियाँ तुम्हारी पीठ पर
किसी अधूरी कविता की पंक्तियाँ बनाती रहीं।
कई बार सोचता हूँ,
क्या वो प्यार था?
या किसी छुपी हुई पीड़ा का विस्फोट?
क्या वो रति थी?
या बस आत्मा की दहलीज़ पर रखी कोई टूटी हुई प्रार्थना?
रात बीत गई,
पर उसकी परछाइयाँ चिपकी रहीं तकिए पर —
और सुबह की किरणें भी
तुम्हारी खुशबू से दूर न कर सकीं उस अनुभव की गहराई।
हम अलग हुए,
पर देहों की जुबान एक-दूसरे की भाषा बन गई।
अब हर चुप्पी में तुम्हारी आहट मिलती है,
और हर नींद में वही रात वापस लौट आती है।
वो रात सिर्फ देह का संगम नहीं था,
वो अंतरतम की पुकार थी —
जिसने हमें पलभर में इतना करीब ला दिया,
जितना शब्दों से कभी नहीं हो सकते।
और आज भी...
जब अँधेरा गहराता है,
मन उसी एक रात की गवाही मांगता है।
वही चाँदनी, वही स्पर्श, वही तड़प,
जो कभी पूरी नहीं हुई...
बस कविता बन गई।
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