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"परतों के पार"
छू लिया था तूने मुझे,
पर तेरी उंगलियाँ मेरी रूह तक नहीं पहुँची थीं।
जिस्म की तपिश में उलझे रहे हम,
मगर दिल की सर्द रातें अकेली ही सोती रहीं।
तेरे होंठों ने कहा था "चाहता हूँ तुझे",
पर आँखें कुछ और बयाँ कर रहीं थीं,
वो चाहत थी या सिर्फ पल भर की प्यास?
या फिर कोई ग़लतफ़हमी, जो हमने ही पाल ली थी?
तेरी बाँहों में छुपी मेरी थकावट,
कुछ देर को सुकून देती थी,
मगर हर सवेरा तन्हा कर जाता था,
जैसे रात भर का साथ बस किराये का होता हो।
हमने प्रेम को जिस्म की भाषा में समझा,
दिल की भाषा पढ़ना हम भूल गए।
स्पर्श जरूरी था, मगर स्पंदन नहीं समझे,
लिपटना आया, पर लिपटने की वजह नहीं जान पाए।
तू जब कहता था "आओ",
मैं दौड़ पड़ती थी...
कभी चाहत में, कभी डर में,
कभी सिर्फ़ इस ख़ालीपन को भरने की उम्मीद में।
बिस्तर की सिलवटों में
हमने कई राज़ छुपाए हैं,
कभी तेरी अधूरी कहानियाँ,
कभी मेरी टूटी उम्मीदें।
हर बार तू चला जाता था,
अपनी साँसें मेरे सिरहाने छोड़ कर,
मैं समेटती थी उन्हें,
जैसे कोई भूली हुई चिट्ठी, जिसे पढ़ने वाला फिर लौट कर नहीं आता।
कभी-कभी सोचती हूँ,
ये जो संबंध हमने रचा,
वो प्रेम था, या बस आदत?
या फिर कोई अधूरी कहानी, जिसे हम पूरा समझ बैठे?
तू जब मेरी पीठ को चूमता था,
मैं आँखें बंद कर लेती थी,
ये सोच कर कि शायद इस बार
तू दिल तक पहुँच जाएगा।
मगर हर बार की तरह,
तू सिर्फ़ मेरी त्वचा से टकरा कर लौट आता था,
तेरा प्रेम सतही था,
या मैं ही बहुत गहरी हो गई थी?
हम दोनों ही भटके हुए लोग थे,
एक-दूसरे को पनाह देने चले थे,
मगर एक-दूसरे के ज़ख़्मों में नमक ही बन बैठे।
कभी तू बोझ लगने लगा,
कभी तू ही सुकून की वजह बना,
हमारे बीच जो भी था,
वो ना साफ़ था, ना गंदा—बस अधूरा था।
रातें बीतीं, मौसम बदले,
तेरी आदतें वही रहीं,
और मैं...
मैं धीरे-धीरे खुद को भूलती चली गई।
प्रेम अब कोई कविता नहीं रहा,
कोई संगीत नहीं,
वो एक अधूरी बैठक बन चुका था,
जिसमें दो लोग आते थे,
बातें कम और सन्नाटे ज़्यादा छोड़ जाते थे।
अब जब तू याद आता है,
तो तेरा चेहरा नहीं दिखता,
बस वो एहसास लौटता है—
जिसने मुझे कभी पूरा किया था, फिर तोड़ भी दिया।
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"समझौता"
हमने समझौते किए,
इच्छाओं के, भावनाओं के,
कभी समाज से,
कभी खुद से।
तू मेरे साथ था,
पर कभी मेरा नहीं था,
और मैं तेरे साथ होते हुए भी
कभी पूरी नहीं थी।
वासना में प्रेम ढूँढा,
प्रेम में सुकून,
और सुकून में सिर्फ़ अकेलापन मिला।
हमने एक-दूसरे के शरीर को जाना,
पर आत्मा को पहचानने का वक़्त नहीं मिला।
तेरा आलिंगन भले ही गर्म था,
पर तेरे इरादे ठंडे थे।
हर रात की शुरुआत उम्मीद से होती थी,
और हर सुबह...
एक और अधूरी दास्ताँ लेकर आती थी।
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"अब और नहीं"
अब मैं इंतज़ार नहीं करती,
ना तुझे, ना उस सुकून को,
जो कभी तेरी साँसों में मिलता था।
मैंने प्रेम की परिभाषा बदल दी है,
अब उसमें खुद से प्यार भी शामिल है,
अब मेरा शरीर मेरा है,
और मेरी रूह...
उसे अब किसी की ज़रूरत नहीं।
---
समाप्त
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