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"ख़ामोशियाँ कहती हैं"
रात के पर्दे में चुपचाप वो आई,
चांदनी भी शरमा गई, जब उसकी ज़ुल्फें बिखर आईं।
नज़रें मिलीं, सांसें थमीं,
लफ़्ज़ कहीं खो गए, बस धड़कनें ही रहीं।
बिना कहे उसने सब कुछ कह दिया,
उसके होंठों पर हल्की सी हँसी थी,
और आंखों में एक पूरा समंदर।
जैसे बरसों की प्यास आज बुझने को हो।
हम दोनों, अजनबी नहीं थे,
पर कुछ था जो अनकहा था।
एक ऐसा स्पर्श, जो बिना छुए भी महसूस हो,
एक ऐसा मिलन, जिसमें जिस्म तो दूर हो, पर रूहें पास।
वो पास आई, और उसके इत्र की खुशबू
जैसे मेरे हर ज़ख्म को सुकून दे गई।
उसके उंगलियों का हल्का सा स्पर्श
मेरे दिल की दीवारों पर दस्तक देने लगा।
हमने कुछ नहीं कहा,
शब्दों की ज़रूरत नहीं थी।
बस नज़रों की भाषा में
हमने एक रात जी ली।
उसकी साँसें मेरी गर्दन को छूती रहीं,
जैसे हर लम्हा अमर हो रहा हो।
हमने वक़्त को थाम लिया था,
उसके आलिंगन में पूरा ब्रह्मांड सिमट आया।
ये कोई सस्ती चाह नहीं थी,
ना ही क्षणिक उत्तेजना।
ये था आत्मा का मेल,
एक गहरा बंधन जो सिर्फ शरीर तक सीमित नहीं था।
हमने एक-दूसरे को पढ़ा,
हर तिल, हर शिकन, हर रेखा को समझा।
जिस्म की किताब में
हमने प्रेम की भाषा ढूंढ ली।
हर सांस में उसका नाम गूंजता रहा,
और उसके होठों की नमी
मेरे अधरों की प्यासी ज़मीन को चूमती रही।
हम लयबद्ध हो गए — जैसे कोई राग, जो दिल से निकला हो।
वो मुस्कुराई, और उस मुस्कान में
एक दुनियाँ छिपी थी —
वो दुनियाँ, जिसमें मैं केवल उसका था
और वो केवल मेरी।
यह मिलन था, लेकिन बंधन नहीं।
यह प्रेम था, लेकिन कैद नहीं।
हमने एक-दूसरे को पाया,
लेकिन खोया भी नहीं।
सुबह की पहली किरण जब खिड़की से आई,
हम अब भी एक-दूसरे के आलिंगन में थे।
बिना वादे, बिना कसमों के,
बस एक एहसास में डूबे हुए।
वो उठी, अपने बाल सवारे,
और बिना कुछ कहे मुस्कराई।
मैंने बस उसका हाथ थामा,
और उस स्पर्श में सब कह दिया।
वो चली गई, लेकिन
उसके होने की खुशबू
हर कोने में बसी रही।
उस रात की गर्मी,
उसके होंठों की नरमी,
उसकी आँखों की चाह —
सब मेरे भीतर समा गया।
कभी-कभी प्यार
शब्दों का मोहताज नहीं होता।
वो बस होता है,
एक क्षण में —
गहराई से,
सच में,
निर्वस्त्र भावनाओं में।
वो रात हमारे बीच
एक कविता बन गई —
जिसमें प्रेम भी था, वासना भी,
सत्य भी था, स्वप्न भी।
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