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Post-60 MIDV-270
"अधूरी रातों की दास्तान"
चाँदनी भी सहमी-सहमी सी थी,
उस रात जब तेरी सांसों ने,
मेरे सीने में एक तूफ़ान जगाया था।
वो लम्हा नहीं था,
बस एक अंतहीन सिलसिला था,
जिसमें जिस्म नहीं,
रूह तक पिघल रही थी।
तेरे होंठों की नमी में,
जाने कितने अधूरे ख़्वाब सिमटे थे,
मैंने हर ख्वाब को चूमा,
मानो कोई इबादत हो —
बेआवाज़, मगर बेहद पाक।
तेरी उंगलियों का हर स्पर्श,
जैसे कोई कथा कहता गया,
हर अंग, एक शब्द,
हर कंपन, एक कविता।
मैं खोता गया उन अर्थों में,
जहाँ प्रेम और वासना
एक ही पुस्तक के दो अध्याय थे।
तू जब मेरी ओर झुका,
तो लगा —
ये दुनिया रुक गई है पल दो पल को,
ना समय था, ना शब्द थे,
बस धड़कनों की लय थी
और उन धड़कनों में
तेरा नाम बजता रहा।
तेरे कंधे पे सिर रख,
मैंने पाया —
एक स्त्री के भीतर की थकान,
जिसे कोई सुन नहीं पाता।
तेरा साथ सिर्फ देह नहीं था,
एक जीवन की पुकार थी
जो देह से होकर
दिल तक पहुंची थी।
तेरे बाद की चुप्पी,
अक्सर सबसे ऊँची चीख़ बन जाती है,
और वो सिलवटें बिस्तर पर
किस्से कहती हैं,
कि कैसे एक रात
पूरे जीवन को बदल सकती है।
मैंने तुम्हें सिर्फ स्पर्श नहीं किया,
मैंने तुम्हारे दर्द को महसूस किया,
उस स्पर्श में वो खामोशियाँ थीं,
जो वर्षों से तुम्हारी आत्मा में दबी थीं।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या ये प्रेम था या प्यास?
क्या ये आत्मा का संगम था
या शरीरों की तृप्ति?
मगर हर बार,
तेरे लम्स की गर्मी
मेरे सवालों को पिघला देती है।
वो आदत जो बन गई है अब,
तेरे जाने के बाद भी,
तेरे गंध को ढूंढना
तकिये के किनारे,
या तेरी आवाज़ को सुनना
खाली दीवारों में।
कभी-कभी
तेरे बिना भी महसूस करता हूँ —
कि तू मेरे भीतर ही बस गया है।
और शायद ये ही है
वो अद्भुत प्रेम,
जो देह से शुरू होकर
मन में उतरता है
और आत्मा में घर बना लेता है।
वो सुबह की पहली चाय,
तेरे होंठों से लगी थी जब,
उस कप की गर्मी
आज भी मेरे होंठों पर है।
तेरी अधूरी बातें,
जो रात्रि के अंधेरे में रुक जाती थीं,
आज भी कानों में
अनकहे गीत बनकर गूंजती हैं।
मैं चाहता हूँ
कि हम फिर मिलें,
बिना देह की बाधाओं के,
बिना सामाजिक जंजाल के,
बस दो आत्माएँ —
जो एक-दूजे की गहराई में
डूब जाना चाहती हैं।
नहीं जानता कि
कविता पूरी हुई या नहीं,
जैसे वो रात भी पूरी नहीं थी,
मगर अधूरा होना ही
शायद पूर्णता का दूसरा नाम है।
क्योंकि जहाँ सब कुछ मिल जाता है,
वहाँ ख्वाहिशें मर जाती हैं।
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