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"तृष्णा का शरीर-शास्त्र"**  

1. भूख**  
कभी-कभी रात एक नंगी चाकू की धार होती है,  
जो खुली आँखों से सपनों को छीलती है।  
मैं तुम्हारी याद में उस तरह भीगता हूँ,  
जैसे बारिश में कोई बेघर दीया।  

तुम्हारी छाया मेरे शरीर पर चिपकी है,  
चुपके से, जैसे गीले कपड़े की परत।  
और जब तुम दूर होती हो,  
मेरी हथेलियाँ रेत की तरह खिसकती हैं—  
हर उंगली से तेरा नाम झरता है।  

#### **2. स्पर्श**  
तुम्हारी गर्माहट वो नक्शा है,  
जिस पर मैं अपनी उंगलियाँ चलाकर  
खोया हुआ राज्य ढूँढ़ता हूँ।  
हमारी देहें वह जंगल हैं  
जहाँ हर चुंबन के बाद  
एक नया रास्ता उग आता है।  

तुम मुझे सिखाती हो कि प्रेम केवल मुँह की बात नहीं,  
यह वो आग है जो हड्डियों तक जलती है,  
और राख में से भी फिर उठ खड़ी होती है।  

#### **3. अंतराल**  
फिर भी, दो शरीरों के बीच हमेशा  
एक नदी बहती है—  
उसके पार जाने के लिए  
हमें अपनी साँसों का पुल बनाना पड़ता है।  

कभी तुम मुझसे पूछती हो:  
*"इतनी गहराई में डूबने से डर नहीं लगता?"*  
मैं हँस देता हूँ,  
क्योंकि डूबना ही तो वह जगह है  
जहाँ हम दोनों की परछाइयाँ  
एक हो जाती हैं।  

#### **4. उजाला**  
सुबह होती है, तो तुम्हारे शरीर पर  
धूप के टुकड़े नाचते हैं—  
मैं उन्हें चुपचाप चुरा लेता हूँ,  
अपनी आँखों की जेब में छुपाकर।  

प्रेम एक सिलसिला है,  
जिसमें हम दोनों  
एक-दूसरे को बार-बार खोजते हैं,  
और हर बार नए होकर मिलते हैं।

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