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"अधूरी ख्वाहिशों का सफर"

चुप्पियों की भी अपनी एक आवाज़ होती है,
बेख़बर रातों में जब जज़्बात रोते हैं।
उम्र की सिलवटों में दबे कुछ ख्वाब हैं,
जो अब भी दिल के किसी कोने में सोते हैं।

वो बचपन का सपना, जवानी की चाह,
हर रिश्ते की पहली मिठास की राह।
पर वक़्त के थपेड़ों ने सबकुछ छीन लिया,
और रह गई बस यादों की परछाइयाँ।

कभी हँसी थी आँखों में, कभी आंसुओं का सैलाब,
कभी बेपरवाह थी दुनिया, कभी खुद से भी सवालात।
रातों की तनहाई में जब खुद को टटोलते हैं,
पुरानी मोहब्बतें फिर से दिल में बोलते हैं।

जीवन का हर मोड़ एक सिखावन बन गया,
हर ग़लती एक अध्याय, हर हार एक नई दास्तान।
कितने ही अफ़साने छुपे हैं इस चेहरे की दरारों में,
कितनी ही तन्हाइयाँ घुली हैं इन सूखी मुस्कानों में।

इश्क़ की वह पहली चिट्ठी अब भी अलमारी में दबी है,
जैसे कोई भूला-बिसरा ख़्वाब किसी पुराने संदूक में पड़ा हो।
तुम्हारे स्पर्श की गर्माहट अब भी साँसों में महकती है,
जैसे कोई बग़ीचे का सूखा फूल, अपनी ख़ुशबू छोड़ गया हो।

पर अब न उम्मीदें हैं, न कोई बेसब्री की तपिश,
अब तो समय भी थक कर कहीं कोने में पड़ा है।
अब मोहब्बत सिर्फ़ एक याद बन गई है,
एक प्याला, जिसमें कड़वा और मीठा घुल गया है।

समझदार बन गए हैं हम,
मगर उस मासूमियत का क्या?
जो हर बार टूटने के बाद भी,
फिर से हँसने का बहाना ढूँढती थी।

सवाल बहुत हैं ज़िंदगी से,
पर जवाब अब ढूँढने का वक़्त नहीं।
अब तो बस बहते जाना है,
कभी आँसूओं में, कभी हँसी के छलावे में।

शब्दों की बुनावट अब थमी नहीं है,
कहानियाँ अधूरी रह गईं हैं फिर भी।
कभी किसी अनजान मुसाफिर के चेहरे में,
खुद को तलाशते हैं हम।

स्मृतियों के आईने में जब झाँकते हैं,
कई अधूरी कविताएँ, कई अनकहे नग़मे
चुपचाप झर जाते हैं पलकें भींचते वक़्त।

पहले प्यार की वो पहली मुस्कान,
पहली छुअन का वो बिजली-सा असर,
सब वक्त के रेगिस्तान में कहीं खो गया,
बस उसकी यादें रह गईं — धूप की परछाइयों-सी।

तनहाइयों का काफ़िला बड़ा होता गया,
रिश्तों के मकान बनते गए, फिर वीरान।
अब जो भी मिलता है, सिर्फ़ नाम से पहचानता है,
रूह से जुड़ने की बात अब सपना रह गई।

कभी लगता था कि प्यार अमर होता है,
अब समझा कि प्यार भी समझौता चाहता है।
कभी लगता था कि दर्द बँट जाएगा,
अब सीखा कि दर्द भी अक्सर अकेला ही जीता है।

रातों के इन चुप पहरों में,
कभी कोई ख्वाब दबे पाँव आता है,
कभी कोई भूली-बिसरी हँसी,
सिरहाने आकर बैठ जाती है।

वक़्त ने सिखा दिया सब्र करना,
लेकिन दिल ने आज भी उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ा।
हर टूटन के बाद भी कहीं न कहीं,
कोई नन्ही-सी रौशनी टिमटिमाती रहती है।

जीवन की इस अधूरी किताब में,
हर पन्ना एक अनकही कहानी है,
कुछ सपनों की, कुछ पछतावों की,
कुछ उन लम्हों की जो लौट कर नहीं आए।

अब जब आईने में खुद को देखता हूँ,
तो वो मासूम लड़का नहीं दिखता,
बस एक मुसाफिर नज़र आता है,
जो मुस्कुराते हुए अपने ज़ख्म छुपा रहा है।

ज़िंदगी के इस अंतहीन सफ़र में,
कोई मंज़िल भी नहीं, कोई हमसफ़र भी नहीं।
बस एक खालीपन है, जो भीतर तक समा गया है,
और एक जिद है, जो अब भी कहती है —
चलो आगे बढ़ते हैं...



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