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"सुन मेरी रूह की चीखें"
चुपचाप सी रातों में, जब देह भी थक जाती है,
कुछ अधूरी इच्छाएँ, पलकों पे सिसकती हैं।
तेरे छूने की गर्माहट, अब भी बदन में जागती है,
तू पास नहीं, फिर भी हर सांस तुझमें डूब जाती है।
तेरा नाम, तेरी गंध, तेरे होठों की रेखाएं,
मैंने कितनी बार अपने ख़्वाबों में इन्हें चूमा है।
हर रात की स्याही में तेरा आंचल घुल जाता है,
और मैं बस तन्हाई की आग में जलता जाता हूँ।
तू आई थी, जब पहली बार, बारिश के बादल-सी,
भीगी हुई, पर चमकती हुई—जैसे कोई मूरत हो।
तेरी आँखों में वो गहराई थी जो समंदर में भी कम,
और तेरे हँसने में ऐसी मिठास, जैसे आम की पहली फाँक।
हम साथ थे, पर बेबाक नहीं,
तेरी शर्म, मेरी चाह, दोनों एक द्वंद्व में थे।
हमने छुआ, हमने सहेजा, पर खुलकर कभी नहीं जिया,
क्योंकि समाज की दीवारें हमारे बीच दीवार बन खड़ी थीं।
तेरे होंठों पे मेरा नाम आया था एक बार,
धीरे से, कांपती ज़ुबान से, ज्यों मन ही मन पुकारा हो।
और फिर जब तुझे मैंने अपने आगोश में लिया था,
तो जैसे सारा अस्तित्व ही कोई कविता बन गया था।
तेरी उंगलियों का वो खेल मेरी पीठ पर,
तेरी साँसों का वो राग मेरे कानों में,
तेरा सिसकना, तेरा थम जाना,
सब कुछ एक गीत की तरह बसा है मेरी रूह में।
ये रिश्ता सिर्फ़ देह का नहीं था,
ये आत्मा की भी प्यास थी,
तेरे साथ हर क्षण एक नया जन्म था,
हर चुम्बन में पुनर्जन्म की अनुभूति थी।
पर फिर आई वो सुबह,
जब तुमने कहा – "अब और नहीं",
तुम लौट गईं अपने 'कर्तव्यों' की दुनिया में,
और मैं रह गया उन सपनों में, जो अब धुंधले हो चुके हैं।
अब भी जब कोई और मुझे छूता है,
तेरा नाम जैसे ज़बान पे आ जाता है।
हर आलिंगन में तुझे ढूँढता हूँ,
हर प्रेम-क्रिया में तेरे देह की नकल करता हूँ।
मैं जानता हूँ, यह उचित नहीं,
पर ये प्रेम था, केवल आकर्षण नहीं।
ये वह जुड़ाव था जो जन्मों से चलता आया था,
और शायद अगले जन्मों तक जाएगा।
तू अगर कहीं है, और ये पढ़ रही है,
तो जान, मैं अब भी तुझे चाहता हूँ।
तेरी यादों में जो नमी है,
वही मेरी कविता की स्याही है।
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"आत्मा की देह"
कई बार वासना को दोष देते हैं लोग,
पर क्या यह भी आत्मा की भाषा नहीं?
जब दो शरीर मिलते हैं सच्चे प्रेम में,
तो वो सिर्फ़ भोग नहीं, एक यज्ञ होता है।
तेरा मेरे भीतर समाना,
और मेरा तुझमें बह जाना,
ये कोई अधर्म नहीं,
ये तो परम सत्य का अनुभव है।
हर स्पर्श में एक कहानी थी,
हर निशान में एक कविता छुपी थी,
तेरे जख्म मेरे थे,
मेरे आँसू तेरे।
सिर्फ़ एक रात नहीं थी वो,
वो तो एक सम्पूर्ण जीवन था—संकुचित, पर सजीव।
तू गई, पर मैं वहीं रुक गया,
उसी रात में, उसी चादर में, उसी गर्माहट में।
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"अंतिम पंक्तियाँ"
अब भी जब मैं अकेला होता हूँ,
तो कविता तुझसे ही निकलती है।
तेरा नाम नहीं ले सकता,
पर तुझे हर शब्द में बुनता हूँ।
अगर कभी मिले तो मत पूछना,
"अब भी याद करता है?"
क्योंकि तू अब 'याद' नहीं,
तू तो अब मेरा हिस्सा है—
एक अधूरी कविता की तरह,
जो कभी पूरी नहीं होगी... पर फिर भी सबसे सुंदर है।
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