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"रात की छाँव में"

चाँदनी ओढ़ कर बैठी थी वो,
आँखों में कुछ बेमानी से जज़्बात लिए,
लब खामोश, पर जिस्म की हर एक साँस
जैसे कोई दास्तां कहती हो धीमे-धीमे।

उसके पास बैठा मैं,
ना कुछ कह सका, ना छू सका उस पल को।
पर उसकी अंगुलियाँ मेरी उंगलियों से
कहीं न कहीं, खुद-ब-खुद उलझ रहीं थीं।

"तुम जानते हो?" — वो बोली,
"प्यार और चाह में फर्क क्या होता है?"
मैंने नज़रें चुराईं, पर उसके सवाल में
एक नंगा सच था, बिल्कुल खुला हुआ।

"प्यार एक एहसास है," मैंने कहा,
"पर चाह... वो जिस्म की भूख भी हो सकती है।"
उसने मुस्कराकर मेरी तरफ देखा,
"तो फिर क्या बुरा है भूख में, अगर वो सच्ची हो?"

मैं चुप था,
उसके होंठ अब भी कांप रहे थे —
जैसे किसी अधूरे गीत की तलाश में हों,
जो रात की आगोश में पूरा होना चाहता हो।

उसके बालों से गिरती चुप्पी
मेरी छाती पर ऐसे गिरती थी
जैसे कोई कसम टूट रही हो,
या फिर कोई वादा बन रहा हो।

"तुम क्या चाहते हो?" — उसने पूछा,
जैसे मेरी हर सोच को उधेड़ देना चाहती हो।
मैंने उसकी कमर को छुआ
धीरे से, इज़ाज़त मांगते हुए, बिना कहे।

वो पास आई,
और उस रात —
हमने शब्दों की जगह स्पर्श को चुना।
हर छूअन एक कविता थी,
हर आह एक मिसरा।

उसके शरीर की गर्मी
मेरे अंदर की ठंड को पिघला रही थी।
मैंने उसकी पीठ पर उंगलियों से
कुछ अनकहे शेर लिखे,
वो मुस्कराई, जैसे कह रही हो —
"तुम्हारी कलम अब समझदार हो गई है।"

धीरे-धीरे,
हमने कपड़ों से ज्यादा
अपने मन के परतें खोलीं।
वो चाहती थी किसी ऐसे को
जो उसके जिस्म से पहले उसकी आत्मा को पढ़े।

"तुम्हें डर नहीं लगता?" — मैंने पूछा।
"नहीं," वो बोली, "डर तब लगता है
जब सामने वाला बस जिस्म देखे,
तुम तो आँखों में भी उतर आए हो।"

रात की खामोशी में
हम दोनों ने कई बार खुद को पाया और खोया।
कभी उसकी बाँहों में सुकून था,
कभी उसकी आँखों में बगावत।

उसने बताया,
कैसे रिश्ते सिर्फ समाज के बनाए बंधन नहीं होते,
बल्कि वो होते हैं —
जहाँ एक औरत अपने अस्तित्व के साथ
खुल कर जी सके, प्यार कर सके,
और कभी-कभी सिर्फ महसूस कर सके।

हमने उस रात
ना कोई नाम रखा अपने रिश्ते को,
ना ही कोई वादा किया सुबह का।
पर वो एक रात
किसी पूरी उम्र की तरह लग रही थी।

हमने बातों-बातों में
कविता की, क्रांति की,
शरीर की और आत्मा की।
उसने कहा —
"औरत होना आसान नहीं होता,
पर जब कोई समझे,
तो सब आसान लगने लगता है।"

मैंने उस पर एक शेर लिखा —
"तेरे बदन की तपिश में बसाया है मैंने इश्क,
जहाँ हर लम्हा, हर छुअन बन गई एक नई नज़्म।"

वो हँसी, और बोली —
"तो फिर इसे अधूरा मत छोड़ना।"
और मैं जान गया —
ये सिर्फ रात नहीं थी,
ये एक किताब थी,
जिसके हर पन्ने पर हम दोनों थे।

सुबह जब आई,
हमने एक-दूसरे को अलविदा नहीं कहा।
बस एक लंबा आलिंगन,
और आँखों में वादा —
कि जब भी मिलेंगे,
किसी कविता की तरह ही मिलेंगे।

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